सागर- जलंधर में विंध्य पर्वत पर विराजित माँ ज्वाला देवी की अद्वितीय विलक्षण प्रतिमा

 

सागर से खुरई राष्ट्रीय राजमार्ग के जरुआखेड़ा कस्बे से महज 10किलोमीटर दूर जलंधर गांव में जंगलों के बीच विंध्याचल पर्वत माला की गोद में विराजी है देवी की एक विलक्षण प्रतिमा जिसे स्थानीय लोग ज्वाला माई कहते है, पुराणों में- दुर्गासप्तसती में माता के विभिन्न स्वरूपो का वर्णन है और इन्ही के अनुसार प्राचीन काल से माता की विभिन्न स्वरूपों और लीलाओं पर आधारित प्रतिमाओं का निर्माण होता चला आ रहा है 

 

जलंधर गांव में विराजमान देवी की यह प्रतिमा बड़ी ही विलक्षण है प्रतिमा में माता पद्मासन में 7 ज्वालाओं पर विराजी है ज्वालाओं के अगल बगल में दो शेर बने हुए है माता की प्रतिमा की जिव्हा उनके उदर तक है 

माता के उदर में भी एक मुख बना हुआ है 

एक ही पत्थर पर निर्मित प्रतिमा में अन्य देवियां भी बनी हुई है जिन्हें क्रमश वैष्णवी ब्रह्माड़ी माहेष्वरी तथा भगवती है 

माता का यह स्वरूप काली या चंडिका का स्वरूप माना जाता है 

प्रतिमा के ऊपरी भाग में विभिन्न देवो की आकृतियां है माता की प्रतिमा के शीश के ऊपर विश्राम मुद्रा में शिव अंकित है तथा इसके ऊपर अन्य देवता गण बने हुए है

चतुर्भुजी प्रतिमा के पीछे चक्र बना हुआ है 4 फ़ीट की इस प्रतिमा मैं माता के चरणों के पास कलश रखा हुआ है  

 

इस प्रतिमा में वर्णित प्रसंग का उल्लेख रक्तबीज बध से है  कहानी अनुसार रक्तबीज नामक भयानक दैत्य के आतंक से सारी सृष्टि पीड़ित हो गई रक्तबीज से देवता भी परास्त हो गए क्योंकि रक्तबीज को बरदान था कि उसके रक्त की बूंद जहां गिरेगी उससे एक नया दैत्य उत्पन्न होगा 

तब देवताओं ने माता की स्तुति की ओर रक्तबीज संहार करने का निवेदन किया इस कार्य के लिए तीनो देवताओं ने अपनी शक्तियों से देवियाँ उतपन्न की ब्रहा से ब्राह्मणी शिव से माहेश्वरी विष्णु की शक्तियों से वैष्णवी प्रकट हुई जिन्होंने माता पार्वती के साथ असुरों का संहार प्रारंभ कर दिया 

देवियों के इस युद्ध से रक्तबीज का बाल भी बांका नही हुआ क्योंकि जब उसका कोई अंग कटता ओर रक्त की बूंद जमीन पर गिरती तब नया दैत्य प्रकट हो जाता 

ऐसी अवस्था में माता पार्वती ने अपने क्रोध स्वरूप को प्रकट किया जिसे कही काली ओर कही चंडिका कहा गया है 

माता के इस रूप ने रक्तबीज का रक्तपान कर उसकी एक बूंद भूमि पर नही गिरने दी और उसका संहार हुआ 

 

यहां पर इस प्रतिमा में माता के इसी कथानक के स्वरूप के दर्शन होना बताए जाते  है मुख्य प्रतिमा में माता की जिव्हा उनके उदर तक होने और उदर में दूसरे मुख द्वारा उन्होंने रक्तबीज के रक्त का पान कर उसका संहार कर सृष्टि को उसके आतंक से मुक्त किया है 

प्रतिमा में माता के उदर में एक मुख होने पर इन्हें उदर मुखी भी कहा जाता है तथा सात ज्वालाओं पर विराजित होने पर इन्हें  ज्वाला माँ के नाम से जाना जाता है इस स्थल को तांत्रिक शक्तिपीठ भी माना जाता है 

 

 

 

ज्वाला माई की इस विलक्षण प्रतिमा के साथ यहां माता गौरी की प्राचीन प्रतिमा तथा  भगवान गणेश की अद्वितीय प्रतिमा विराजी है 

इन प्रतिमाओं के बारे में पुरात्तव और इतिहासविदों को कोई जानकारी नही है लेकिन भारत की प्राचीन इतिहास के  अध्ययन से यह माना जा सकता है कि यह प्रतिमा 9 वी 10वी शताब्दी काल की हो सकती है 

मंदिर में मिली गौरी प्रतिमा के स्वरूप अनुसार इसे परमार कालीन मूर्ति शिल्प माना जा सकता है इस के पीछे यह धारणा भी है कि समीपस्थ राहतगढ में परमार वंश का शासन रहने के शिलालेखीय प्रमाण मिलते है  

वर्तमान में वर्ष की दोनों नवरात्रियों में  प्राकृतिक वादियों में पहाड़ के ऊपर ही यहां मेले का आयोजन किया जाता है जिसमे दूर दूर से श्रद्धालु आते है


By - SAGAR TV NEWS
03-Oct-2022

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